Friday, July 29, 2016

रोटीमैटिक - इन्तजार और सही - अब इंतज़ार ख़त्म हुआ

साल २०१४ में मैंने रोटीमैटिक के बारे में एक ब्लॉग पोस्ट लिखा था - "इन्तजार और सही", जिसमे मैंने इच्छा जताई थी की यह मशीन मैं अपनी बुजुर्ग माँ को गिफ्ट करना चाहती हूँ ।
ये साल २०१६ है, अब चार साल से ऊपर होने को है, मशीन मार्किट में कभी नहीं आयी। मेरी माँ अब नहीं है, कुछ समय पहले उनका असमय देहांत हो गया । अब रोटीमैटिक की जरूरत नहीं लगती । पर उनके फेसबुक पेज पर अब कुछ नहीं । लोग भी पूछ पूछ के थक गए की कब आएगी मशीन । उनका फेसबुक पेज पिछले एक साल से एक्टिव नहीं । एक और अनरेअलिस्टिक रेवोलुशनरी प्रोटोटाइप मशीन जाने कब आके कब चली गयी, पता भी नहीं चला ।

अब मैं भी गेम ऑफ़ थ्रोन्स के नाइट वाचर की तरह कह सकती हूँ "एंड माय वाच हैस एंडेड "

Rotimatic - launching soon (since 2012)
Rotimatic - launching soon (since 2012)

सताना की कहानी - नानी की पोटली से

सताना का नाम शायद  बहुत से लोगों ने सुना होगा या शायद ना भी सुना हो၊ 

इस बात से आपको कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता पर मुझे पड़ता है। ये कहानी बचपन से नानी और माँ दोनों के मुह से साल दर साल सुनी है। शायद आप मे से कुछ वाकिफ होंगे उत्तर भारत में मनाये जाने वाले त्यौहार भाई दूज से।
रक्षा बंधन की तरह भाई दूज भी भाई और बहन के लिए मनाया जाने वाला त्योहार है। दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा होती है और उसके अगले दिन भाई दूज। इस दिन घर की बहने और बहुएँ सुबह सवेरे नहा धोके चावल और पानी को पीस कर महीन सफ़ेद रंग तैयार करती हैं और उस रंग से घर के कमरे या आंगन के कोने में फर्श पर कोहबर जैसी कलात्मक कृतियां बनाती हैं। इस पेंटिंग में मुख्य रूप से 6 भाई और एक बहन, 6 बीवियां, द्वारपाल, साँप, गाय और गंगा जमुना होते हैं।

इन सब का कोहबर में बनाये जाने का एक विशेष कारण होता है। भाई दूज के दिन कुल पाँच कहानियां कही जाती हैं। इन्ही में  से एक होती है सताना की कहानी।

बहुत साल हुए , नानी के देहांत के बाद से सताना की कहानी नहीं कही गयी। कारण सिर्फ यही की घर की औरतें अब उतनी मेहनत नहीं करना चाहती थीं।

सताना 6 भाइयों की अकेली और लाडली बहन और भाभियों से त्रस्त एक अबला कन्या है जो अक्सर भाभियों के कोप का शिकार बनती है। एक बार सताना को उसकी एक भाभी ने काली कम्बल सफेद करके लाने का हुक्म दिया तब सताना देर तक यमुना किनारे बैठी रोती रही। भला हो जमुना मैया का जिन्होंने अपने पानी के वेग से सताना की काली कम्बल सफ़ेद कर दी थी।

एक दिन ऐसे ही भाइयों के विदेश जाने पर भाभियों ने सताना को हुक्म दिया चलनी में गाय का दूध दुह कर लाया जाये। सताना ने लाख कोशिश की, पर गाय ढीठ थी और वो सताना को पास भी न फटकने देती थी। एक सांप से से संतान के आंसू  न देखे गए और उसने सताना को कहा कि उसके शरीर से गाय के पैर बाँध कर दूध दुह ले। तब कहीं जा के सताना गाय को काबू में कर पायी।

पर जब छलनी में दूध दुहना शुरू किया तो सारा दूध गिर जाता था। सताना फिर से रोने लगी। इस बार गाय  घर में रहने वाली मकड़ियों से सताना का रोना नहीं देखा गया। और उन्होंने छलनी में कुछ इस तरह जाला बुना दूध गिरना बंद हो गया।

एक दिन राजा के यहाँ मुनादी हुयी, नए बाँध का उदघाटन होना था और पंडित ने बताया की एक ऐसे आदमी की बलि दी जाये जिसको कभी ना मारा पीटा गया हो न ही कभी गली या अपशब्द बोला गया हो। सताना ने जब यह सुना तो उसका माथा ठनका की जरूर उसके भाई को पकड़ के बलि दे दिया जायेगा क्योंकि सताना के भाई बहुत ही लाडले थे, ना ही कभी उनको गाली न कभी डांट मार पड़ी थी । 

यह मुनादी सुनते ही सताना भागते हुए कुएं के पास पहुंची और सारे गाँव वालों के सामने जोर जोर से चिल्ला कर एक ही बात रटने लगी - भैया मरे भौजैया रांड । जिसका मतलब है की भाई की मृत्यु हो और भाभी विधवा हो जाये । ईसिस प्रकार की गालियां सताना दे ही रही थी तब तक राजा के सैनिक घर घर बलि के लिए आदमी खोजते हुए सताना के दरवाजे पहुंचे जहाँ भाइयों और भाभियों में बहस चल रही थी की सताना पागल हो गयी है और अपने भाइयों को बुरा भला कह रही है। 

सारे गांव वालों ने सैनिकों को ये कह कर सताना के घर भेज दिया की केवल सताना के भाई ही हैं जिनको कभी गाली या मार ना पड़ी हो। जब सैनिक सताना के घर पहुंचे, तो भाई और भाभी घर में आपस में सताना को लेके लड़ रहे थे । सैनिकों ने भाई को पकड़ा और ले कर चलने लगे। 
जब गांव के चौक पर भाई को बलि से पहले स्नान करने के लिए कपडे उतारे गए, वैसे ही देखा की भाई के पूरे शरीर पर ना जाने कितने घाव थे । यह देखते ही सैनिकों ने भाई को गालियां देते हुए छोड़ दिया । इस प्रकार भाई अपने घर आये और सताना ने घर पहुँच कर अपने भाई से बहुत माफ़ी मांगी और बार बार रोते हुए कहा की भाई की जान बचाने के लिए उसने गालियां दीं । इसके बाद भाई, भाभी और संतान सब मिलकर ख़ुशी से साथ साथ रहने लगे। 

Saturday, March 14, 2015

नारी मुक्ति सबकी मुक्ति | बदलता समाज

वेलेंटिन्स डे को मातृ पितृ दिवस बनाने की चेष्टाएँ हो रही हैं। छत्तीसगढ़  में तो बाकायदा इसे एक दिवस घोषित कर दिया गया है। जैसे बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जी की पूजा होती है उसी तरह माता पिता की पूजा के लिए ये दिन बना दिया गया है। मानो हम इतने गए बीते हो गए की माँ बाप की सेवा के लिए हमें एक दिन विशेष की आवश्यकता पड़ने लगे। खैर जिनको जरूरत हो वो मनाये ये दिन।
जहाँ एक तरफ लव कमांडोज़ हैं तो दूसरी तरफ हिन्दू महासभा है।
इस सब के बीच हम में से अधिकाँश लोग इतनी आसानी से हाल में हुए रेप कांड भूल कर प्रेम दिवस और मातृ पितृ दिवस मानाने में लग गए हैं।
हाल में रोहतक में एक मानसिक रूप से कमजोर नेपाली लड़की के साथ जो हुआ वो कैसे नहीं उतना प्रचार पा रहा है जितना की मातृ पितृ दिवस या चुनाव को मिल रहा है? जो पढता है वो कहता है की रोहतक कांड नेें सोलह दिसम्बर की याद ताजा करा दी है, लेकिन फिर इस बारे में कोई जिक्र क्यों नहीं करना चाहता?

नेपाली युवती का शव बड़ी ही वीभत्स स्थिति में पाया गया। यदि अखबार की माने तो चेहरा और शरीर के कई हिस्से जानवरों द्वारा खा लिए गए थे। फेफड़े व कुछ अन्य जरूरी अंग शरीर से गायब थे, खोपड़ी में फ्रैक्चर भी पाया गया। उसके अलावा जो बहुत ही अमानवीय और शर्मनाक बात है वो ये की उसके प्राइवेट पार्ट्स में दो बड़े पत्थर, एक लगभग 11 इंच की छड़ी, कई कंडोम, ब्लेड भी पाये गए। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार मरने से पहले उसे बुरी तरह की अमानवीय यातनाएं मिलीं।

उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में दो लड़कों ने एक लड़की को जिन्दा रहते छोटे छोटे टुकड़ों में काटा और फिर गाला दबा कर उसकी हत्या की।
whatsapp पर एक रेप वीडियो viral हो गया था और संयोगवश वो एक समाजसेवी महिला के हाथ लगा जिन्होंने उसे एडिट करके न सिर्फ youtube पर डाला बल्कि उसे एक न्यूज़ चॅनेल तक भी पहुँचाया ताकि पीड़िता को न्याय मिल सके। इस वीडियो में ५ युवक एक लड़की का न सिर्फ रेप करते हैं बल्कि मोबाइल पर उसका वीडियो बना के circulate भी करते हैं। इस वीडियो में लड़की गुहार लगा रही है - "भैया वीडियो मत बनाइये वरना हमारे पास आत्महत्या के अलावा दूसरा को रास्ता नहीं रह जायेगा।"
आशाराम जो अपने पुत्र के साथ स्वयं भी रेप के चार्ज में जेल की हवा खा रहे हैं, उन्होंने सीख दी थी की रेपिस्ट से प्यार से 'भाई' कह निवेदन करो तो रेप टाला जा सकता है। पांच लड़के जिन्होंने किशोरी का रेप किया था, अभी भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। और तो और अब तक उनकी शिनाख्त तक नहीं हो पायी है। समाजसेवी महिला जिन्होंने इस काण्ड को मीडिया तक पहुँचाया था, उनकी कार पर हाल ही में हमला हुआ और शीशे तोड़े गए।

बंगलौर में एक मजदूर पकड़ा गया - उसने एक आठ साल की बच्ची का रेप करके उसकी गला दबा के हत्या कर दी। ये बात अलग है की वो सीसी टीवी कैमरे में हुयी रिकॉर्डिंग के चलते पकड़ा गया।
ये सब घटनाएं पिछले महीने की हैं। सब में एक ही बात सामान है- महिलाओं के खिलाफ हिंसा व उत्पीड़न।

हम कभी ये ख़बरें पढ़ते हैं लोगों के साथ डिस्कस्स करते हैं और कभी सिर्फ पढ़ कर आगे बढ़ जाते हैं। क्या कभी हम ये सोचते हैं की जिस समाज में हम अपने बच्चों को बड़े होते नहीं देखना चाहते, वो समाज हम बनने ही क्यों दे रहे हैं? क्या हम सचमुच कुछ नहीं कर सकते? कल को अगर हमारी खुद की बेटी के साथ कुछ बुरा हो जाये या हमारा बेटा इस तरह के किसी जुर्म में फंस जाये तो? कभी सोचा है?

सोच तो तभी पाएंगे जब खुले मन से सोचना चाहेंगे। सिर्फ ये कह देना की "हमने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं," "नहीं जी हमारे बच्चे ऐसे नहीं हैं" काफी है? मुझे लगता है की बजाय इसके अगर हम समस्या की जड़ तक जाएँ और उसे उखाड़ फेंके तो रहत मिल सकती है।

बच्चे बड़े हो रहे हैं और हमारे चारों तरफ का माहौल काफी charged up और sexualized है। नहीं मानते? तो फिर कोई भी टीवी चैनल खोल के देख लीजिये। इंडियन सीरिअल्स हों या विदेशी सब कुछ वही है जो हम बच्चों को नहीं देखने देना चाहते। teenage बच्चे तो दूर की बात है सात आठ साल के बच्चे टीवी पर आते प्रोग्राम्स को देख के उत्सुक रहते हैं की हो क्या रहा है। वो जानना चाहते हैं और आप उन्हें डांट के चुप करवा देते हैं या कभी उन्हें बच्चा समझ के उलटे पुलटे जवाब  देते हैं। दोनों ही बातें बहुत घातक हैं।

आठ दस साल का होते होते बच्चे बहुत कुछ समझने लगते हैं भले ही वो आपके सामने भोले बने पर उनकी उत्सुकता उन्हें बहुत दिनों तक भोला बना रहने नहीं देती। दोस्त बनते है, ज्यादा समय इंटरनेट और दोस्तों के साथ गुजरने लगता है। यदि इस समय उनकी उत्सुकता को शांत ना किया जाये तो परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं। एक समझदार और अपना भला बुरा समझने वाला बच्चा न सिर्फ अपने आपको गलत इरादों का शिकार होने से बचा सकता है बल्कि अपने हमउम्र साथियों की भी मदद कर सकता है। यही बच्चा बड़ा होकर एक जिम्मेदार नागरिक बनता है।

जब हमें पता है की हम अपने बच्चों को टीवी इंटरनेट किताबों और वीडियो गेम की दुनिया से दूर नहीं रख सकते तो इस सच का सामना करना जरूरी है की उत्सुक मन अपनी उत्सुकता दूर करके रहेगा अब वह आपके जरिये हो या अन्य माध्यमो से। क्या ये अच्छा नहीं होगा की आपका बच्चा आपमें अपने एक परिपक्व दोस्त की छवि देखे, न सिर्फ आपसे अपनी बातों के जवाब पाये बल्कि हर छोटी बड़ी बात में आपको शामिल करे?
टीवी और इंटरनेट की दुनिया का सच पूरा सच नहीं है और ये अपने छोटों को बताना हमारी जिम्मेदारी है। उनके सवालों को इग्नोर करना या दबाना उनमे कुंठा को जन्म दे सकता है।

दूसरी और एक अलग ही वर्ग है जिसने शायद ही स्कूल का मुह देखा हो और देखा भी हो तो इतना नहीं जिसे सही मायनेमे शिक्षा कहा जा सके। उस वर्ग को भी टीवी इंटरनेट एवं अन्य माध्यम उतने ही उपलब्ध हैं जितने की पढ़ी लिखी जनता को। पर इस वर्ग को टीवी के सच और ज़िन्दगी के सच में अंतर बताने वाला कोई नहीं है। जब ये वर्ग पब या सिनेमा हल स3 रास्ते में निकलती लड़की को देखता है तो एक ही बात सोचता है - 'उस तरह की लड़की' जिसके साथ उसी तरह का व्यवहार होना चाहिए।
अमीर लड़के तो फिर भी अपनी अमीरी के सहारे लड़कियों से बातचीत कर पा रहे हैं और उनके साथ बाहर घूम पा रहे हैं, पर इस वर्ग का क्या जो फैशनेबुल कपड़ों में घूमती गुड़िया जैसी लड़कियों को बस घूर सकता है। उन्हें क्रीप और बहुत कुछ बोला जाता है और क्यों न बोला जाये, सचाई भी तो यही है। हमारी फिल्मों ने इसमें कोई कसर छोड़ी नहीं। ज्यादातर फिल्म यही दिखती हैं की अगर लड़की का बहुत दिनतक पीछा करो तो उसे तुमसे प्यार हो जायेगा... वगैरह वगैरह। और जब वो सच में पीछा करते हैं तो पिट जाते हैं। इस कुंठा को इस तरह से भी समझा जा सकता है की यदि प्रेशर कुकर को बहुत  पे चढ़ा कर छोड़ दो तो एक समय ऐसा आता है प्रेशर  बाहर निकलने  कोशिश करता है । यदि प्रेशर बाहर ना निकल पाये तो सेफ्टी वॉल्व फट कर भाप बाहर निकल जाती है । 

मेरा कहना बस यही है  हमारा ये हाल एक  या एक साल या  सालों में नहीं हुआ है । इसके लिए बहुत कुछ जिम्मेदार है- लड़की  और लड़के में भेदभाव , पुत्र संतान को तरजीह, अशिक्षा, गलत परवरिश (लड़कों को राजकुमार और  लड़की दुसरे घर की अमानत) लड़कियों का लड़कियों का घर में सीमित रहना और लड़कों का सड़कों पर घर बना लेना कुछ एक कारण हैं, ऐसे ऐसे बहुत से अन्य कारण और बताये जा सकते हैं । 

कल  और आज दिल्ली में हुए मूक प्रोटेस्ट इस बात का सबूत हैं की हमारे देश के युवा इस सड़ी गली मानसिकता  पूरी  निजात चाहते हैं ।  जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सेनेटरी पैड्स को  प्रोटेस्ट  का अनूठा जरिया बनाते हुए  कुछ ऐसा किया है जो कबिल -ए -तारीफ है । 

जरा गौर फरमाएं :  

“Period blood is not impure, your thoughts are.” (पीरियड का खून गन्दा नहीं, तुम्हारी सोच गन्दी है गन्दी है)
“Menstruation is natural, rape is not.” (पीरियड्स प्राकृतिक हैं रेप नहीं)
“Streets of Delhi belong to women too.” (दिल्ली की सड़कें लड़कियों के लिए भी है )
“Rapists rape people, not outfits.” (रेपिस्ट लड़कियों का रेप करते  हैं, उनके कपड़ों का नहीं )
“Kanya Kumari, Gandi soch tumhari.” (कन्या कुमारी , गन्दी सोच तुम्हारी )

फोटो क्रेडिट: फेसबुक 

 नारी मुक्ति सबकी मुक्ति 


एक कोना मेरा भी


मखमली कश्मीरी कालीनों  के  बीच में दबा पड़ा कहीं  टाट का बिछौना मेरा भी ।
ढेर सी अंगरेजी किताबों के बीच हिंदी शब्दकोश का होना है होना मेरा भी ।
बड़ी बड़ी इमारतों के बीच में एक झोपड़ा जो दीखता है, उस झोपड़े में है एक कोना मेरा भी ।


Thursday, January 29, 2015

कहाँ है स्वच्छ भारत ?

आज बहुत गुस्सा आ रहा है । बृहस्पतिवार है और आफिस से घर के रस्ते पर सांई बाबा का मंदिर पड़ता है, प्रसाद पाने वालों की लम्बी लाइन लगती है । बड़ा भव्य समारोह होता है आदमियों से ज्यादा औरतों की लम्बी कतारें नजर आती हैं । बड़े बड़े भोंपुओं से आती आरती की आवाजें माहौल को और भ धार्मिक बना देती हैं । मोहल्ले के माननीय बुजुर्गों और उत्साहित आईटी प्रोफ़ेशिोनेल्स बढ़ चढ़ के तन और धन से सेवा करते हैं (मन टटोलना मैं नहीं जानती)।

बृहस्तिवार को सड़क में भीड़ इतनी बढ़ जाती है कि कार या ऑटो तो बहुत दूर की बात है, बिना किसी से चिपके पैदल चलना भी मुश्किल होता है । भीड़ मजनुओं और विकृत मानसिकता वालों की मनपसंद जगह है । भीड़ में कुछ भी करके निकल जाओ पता नहीं चलता । 

ये तो है हर हफ्ते का हाल पर आज जो हुआ वो बहुत ही शर्मनाक है, ना सिर्फ मेरे लिए बल्कि भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए । ये बात और है कि बहुत से लोग इस शर्म को देख के अनदेखा करते हैं और ज्यादातर इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं । 
हुआ यूँ की मंदिर पार करके  जैसे ही मैं अपनी बिल्डिंग के मेन गेट पर पहुंची अँधेरे में कुछ हिलता सा देखा । पास आने पर पता चला की एक जवान महिला और एक छोटी बच्ची मेरे बिल्डिंग के गेट के ठीक बगल में मूत्र विसर्जन कर रहे थे । और वहीँ पर एक बुजुर्ग महिला उन दोनों की चौकीदारी कर रही थी । मन गुस्से और घिन से भर गया, इसी हवा में मैं और हमारी बिल्डिंग के लोग सांस लेते हैं । प्रतिदिन हम कितने इंसानो और जानवरों के मूत्र और पखाने की सांस लेने को विवश हैं । 

पढ़ने वालों, अगर तुमको ये पढ़ के घिन आती है तो जाओ अपनी नकली दुनिया में वापस जहाँ सब सुन्दर साफ़ और अच्छा है और ऐसे दर्शाओ जैसे ये कोई समस्या ही नहीं है । पर मैं आज अपने दिल की भड़ास निकाल के रहूंगी । मेरे लिए एक बड़ी समस्या है, मेरा देश टीवी पर स्वच्छ भारत अभियान चलता है पर सड़क पे चलती कार से मुंडी निकल के पान की पीक थूकता है और ये भी नहीं देखता की वो पीक किस पर पड़ रही है । 

देश में नौजवान सड़क पर लघुशंका और दीर्घशंका के लिए विवश हैं । महिलाओं और लड़कियों को कितनी बार शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है इस सब के चलते । बहुत से लोग कहते हैं की धीरे धीरे सब बदल रहा है, शायद बदल रहा है पर सामने क्यों नहीं दिखता ? या दुनिया भर की गन्दगी मुझे ही दिख रही है? या फिर बाकियों ने डेवेलपमेंट के नाम पे आँखें बंद कर रखी  हैं? शायद उन्होंने ये मान लिया है की डेवलपमेंट अपने आप होगा या मोदी जी कर देंगे और इसलिए वो चिंतित नहीं हैं ।

बुनियादी जरूरतें जैसे डिग्निटी के साथ रोजमर्रा के काम कर पाना संभव नहीं तो हम किस डेवलपमेंट की आस लगा के बैठे हैं? अगर भारत में मानव जीवन ऐसा है और परस्पर एक दुसरे के प्रति कोई दया भाव या आदर सम्मान नहीं, तो भले ही सौ साल बाद हम दुनिया में विकसित देश का रुतबा हासिल कर लें पर सच का "डेवलपमेंट" तब भी नहीं हो पायेगा ।

कहाँ है स्वच्छ भारत? कहाँ हैं टॉयलेट्स ? कहाँ हैं साफ़ सड़कें? कहाँ है साफ़ हवा ?

Friday, July 11, 2014

इंतज़ार और सही - Rotimatic the Legendary (hoax) Rotimaker by Zimplistic

बड़ी ख़ुशी हुयी थी जान के की एक कंपनी जिपंलिस्टिक ने एक ऐसा रोटीमकेर लांच किया है जो भारतीय महिलाओ के लिए क्र।न्तिकारी साबित होगा । ये खबर सारे ऑनलाइन मीडिया में साल २०१२ में छायी हुयी थी । रोटीमेकर जिसका नाम रोटिमटिक है,  हर मिनट एक रोटी बना के निकालेगा । अगर केवल आटा और पानी दाल के मशीन का स्विच ओन करते ही हर मिनट गरमा गरम रोटी डाइनिंग टेबल पे मिलती रहे और उसके लिए किसी को कोई काम ना करना पड़े तो ऐसी मशीने कौन अपने घर नहीं लाना चाहेगा !

वेबसाइट दावा करती रही की मशीन नवंबर २०१२ में लांच हो रही है और मैंने लगभग तय कर लिया था की एक मशीन अपने लिए, एक अपने माँ के लिए खरीदनी ही है। मेरी राय में यह भारतीय महिलाओं के लिए उतना ही क्रन्तिकारी आविष्कार साबित होगा जितनी क्रन्तिकारी वाशिंग मशीन साबित हुयी है । महिलाएं जो घर और बाहर दोनों जगह काम करती हैं, उनके लिए यह मशीन बहुत ही उपयोगी साबित हो सकती है । रोटिमटिक के विज्ञापन दिखाते हैं की इसे चलना इतना आसान है की घर के पुरुष, जिनसे रोटी बनाना तो दूर आता गूंधने की उम्मीद भी बेईमानी है (घर के काम में सहयोग देने वाले पुरुष कृपया माफ़ करें और सहयोग ना देने वाले पुरुष कृपया सहयोग देने वाले पुरुषों से कुछ सीखें) वो भी इसे आराम से चला सकते हैं । 

बुजुर्ग दंपत्ति जो घर में अकेले रहते हैं और उनके पास काम करने के लिए कोई हेल्पर भी नहीं है, उनके लिए भी यह बहुत कारगर साबित हो सकती है । मैंने २०१२ में ही अपनी माँ को उम्मीदे दिल दी थी की मैं उन्हें जल्द ही एक  ऐसी मशीन गिफ्ट करुँगी जो गरमा गरम रोटी खिलायेगी । मैं बहुत दुखी हूँ की मैं अपने वादे को पूरा नहीं कर पायी हूँ अब तक । 

कंपनी दावा करती रही है की पहले बैच की टेस्टिंग हो गयी है और लोगों ने मशीन को बहुत पसंद किया है । समझ नहीं आता की ये लोग कौन हैं जिन्हे टेस्टिंग बैच वाली मशीने दी गयी थीं । ये बात संदेह पैदा करने वाली है की अब तक कंपनी सिवाय प्रमोशन वीडियो के और पेड एडवरटाइजिंग करवा के अपनी वेबसाइट सजाने के आलावा और कुछ ठोस कदम क्यों नहीं उठा पायी है । 

यदि कम्पनी की बातें और दावे केवल हवा नहीं हैं तो अब तक एक भी वीडियो या टेस्टिमोनी का उल्लेख जक्यो नहीं है जिसमे रैंडम लोग टेस्ट बैच का उपयोग करते और अपनी राय शेयर करते दिखाए गए हों!  कंपनी का फेसबुक पेज मेरे जैसे लोगों की निराशा दर्शाता है ।   दो साल से ऊपर का समय रोटीमाटिक जैसे प्रोडक्ट को टेस्टिंग फेज से बाहर आने के लिए काफी नहीं रहा है और अब कंपनी का कहना है की इस साल के अंत में यह रोटीमकेर लांच किया जायेगा । इतने डिले के बाद बहुत से लोगों को यह एक स्कैम से अधिक कुछ नहीं लग रहा । 

कंपनी जितनी एक्टिव और सीरियस मार्केटिंग को लेके है उतनी एक्टिव और सीरियस अपने प्रोडक्ट डेवेलपमेंट को लेके नहीं दिखती । उनका फेसबुक पेज भी सिर्फ उन हई लोगों को जवाब देता है जो "वाओ" और "जी हुजूरी" से भरपूर कमेंट्स करते हैं । साल २०१४ का सातवां महीना चल रहा है और कंपनी ने एक और वेबसाईट www.mashable.com पर अपना प्रचार करवाने में कामयाबी पायी है। बताते चलें की mashable एक बहुत ही पॉपुलर विदेशी वेबसाइट है । 

कई बार लगता है की ये इन्वेस्टर्स से पैसा ऐठने का एक बहुत बड़ा स्कैम है और ऐसे कोई  मशीन भारत में तो कई सालों तक आनी असंभव है । पर फिर भी एक हलकी सी उम्मीद है की शायद मैं अपनी बुजुर्ग माँ को जल्द ही ये मशीन गिफ्ट कर पाऊं और उन्हें किचेन में अधिक समय ना बिताना पड़े । 

इन्तजार और सही … 

Tuesday, May 13, 2014

जैसे उनके दिन बहुरे तैसे सबके बहुरें!

शुरू करने के लिए कई वाकये हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है । पर ये निर्णय कर  पाना मुश्किल है कि ऐस कौन सा टॉपिक हो सकता है जो पहली पोस्ट का हकदार हो ! समस्या इतनी गहन भी नही इसलिए सोचा क्यों ना कुछ यूं ही लिखा जाय। 

बिना चुनावी चर्चा के ये ब्लॉग अधूरा रहेगा । हालाँकि मैं टी वी नहीं देखती, ईसलिए नही कि पसन्द नही है बल्कि इस लिये क्योंकि मेरे पास टी वी है नहीं ।  आप सोच सकते हैं कि बड़ी अजीब बात है आजकल तो हर घर मे टी वी है (बिलकुल उसी तरह जैसे घर घर मोदी है )। अखबार खरीदना पैसे की बर्बादी लगती है । बता देना उचित होगा कि मै भी उन लोगों मे से हुँ जो समझते हैं कि अखबार बिके हुये हैं (ये उन लोगों के लिये जो हर बात पे लोगोँ को जज करते हैं , मैने उनका काम आसान कर दिया ) तो वापस आते हैं इस बात पे कि मुझे कैसे पता चली घर घर मोदी होने कि बात ! हुआ यूं कि अब से कुछ साल एक पहले आस पास के लोगों को चुनावी चर्चा करते हुए सुना । दो महीने बीतते हवा ठंडी से गर्म होना शुरु हो गयी थी । हर जगह जीतने वाली पार्टी के पोस्टर छाने लगे थे । इतने बड़े पोस्टर जो पांच साल मे एक बार दीखते हैं । हाँ वही जिनके छोटे स्वरुप ट्रैन, बस, टैम्पो आदि पर भी मिलते हैं । अब हर जगह मुह भर भर के पोस्टर दिखाएंगे हमको तो हम कैसे ना जानेंगे कि मोदी घर घर हैं । 

पता नहीं क्यों पर दिमाग बहुत अजीब है। अनाप शनाप तुलनाएं करता है। जब छोटे थे तो हमारी नींद अक्सर गुसलखाने से आते कुछ इस तरह के नारों से टूटती थी - 'हर हर गंगे भागीरथी पाप ना राख्यौ एक्को रत्ती' । पता चल जाता था की घर का कोइ ना कोइ सदस्य स्नान कर रहा है । हर हर गंगे भागीरथी तो समझ आता था कि गंगा जी को याद किया जा रहा है पर 'हर हर मोदी घर घर मोदी' बिल्कुल नया नारा था । कमबख्त जिसने भी बनाया हो ये नारा पर एक बात तय है या तो हजरत बहुत बड़े तीस मार खां हैं या इर हमारी तरह कोई आम 'टाइम पास' आदमी। ये तो हद ही हो गयी गंगा मैया का सदियों पुराना नारा कोइ और हथिया ले गया ! ये बात दीगर है कि कुछ मैया भक्त मामले को दूर तक ले गये और हर हर मोदी नारा भूतकाल का भूत हो लिया । पर तब तक तीर कमान से निकल चुका था । हमारे जैसे पता नही कितने लोगों को पता चल चुका था कि मोदी घर घर हैं । 

टीवी पे तो अलग ही नारे बुलंद हैं । सुनते हैं इस बार की सरकार किसी पार्टी विषेश की नही है । अबकी बार मोदी सरकार है । कुछ क्रांतिकारी विचारधारा के लोग कह  कि अब सब खत्म हो जायेगा । हर तरह की सेंसरशिप आएगी । स्वतंत्र मीडिया और कलाकारों के लिए बुरा समय आने वाला है। और भी बहुत सी अजीब अजीब बातेँ सुन रही हूँ । थोड़ी कन्फ्यूज्ड हूँ - जब पता था तो रोक काहे नही लिया भईया !

 बचपन में हम सारी चचेरी ममेरे और सगी बहने इकटठे होतीं थीँ भैया दूज की पूजा के लिये । नानी , मामी और मम्मी मिलके ककुल पाँच कहानियां कहतीं थीं । उनमे से एक कहानी के पात्र पांच भाई और उनके एक लाड़ली बहन ' सताना ' होती थी । भाइयों का नाम कभी पता नहीं चला । मैंने पुछा था कई बार , हमेशा घर क़ी बडी औरतोँ ने य तो हॅंस केटाल दिया या डांट के चुप करा दिया । मुझे शक ही नही, पूरा यकींन है, उनमे से क़िसी को भी भाइयों के नाम पता नही होंगे । ऐसे ही अब मुझे भी नहीं पता । कल को मेरी बेटी पूछेगी तो मैं भी शायद उसे डांट के चुप करा दूँ । या फिर कोई इमेजिनरी नाम दे देना उचित होगा । बच्चे को डांट लगाने के पाप से बच जाउंगी । 

बताती चलूँ कि सताना एक लाड़ली बहन थी । पर जैसे ही भाइयों की शादियां हो गयीं, भाभियों ने उस पर जुल्मो की सारी हदें पार कर डाली । ना जाने भाइयों को कैसे पता नहीं चला । एक ही छत तले रहते हुए भी! पर जैसे हर रात कि सुबह होती है, सताना के कष्टों का अन्त हुआ। जो उत्तर भारत के निवासी हैं , शायद उन्होने भी ये कहानियाँसुनीं होँगी। सताना की कहानी के अन्त मे एकवाक्य कहना अनिवार्य था  - जैसे उनके दिन बहुरे तैसे सबके  बहुरें । तबसे जब भी कोई खबर सुनती हूँ, मैं तंज़ में , खुशी मे या चिड़ कर यही कहती हूँ - जैसे उनके दिन बहुरे तैसे सबके  बहुरें! सोलह तारीख अब बहुत दूर नहीं ।