आज बहुत गुस्सा आ रहा है । बृहस्पतिवार है और आफिस से घर के रस्ते पर सांई बाबा का मंदिर पड़ता है, प्रसाद पाने वालों की लम्बी लाइन लगती है । बड़ा भव्य समारोह होता है आदमियों से ज्यादा औरतों की लम्बी कतारें नजर आती हैं । बड़े बड़े भोंपुओं से आती आरती की आवाजें माहौल को और भ धार्मिक बना देती हैं । मोहल्ले के माननीय बुजुर्गों और उत्साहित आईटी प्रोफ़ेशिोनेल्स बढ़ चढ़ के तन और धन से सेवा करते हैं (मन टटोलना मैं नहीं जानती)।
बृहस्तिवार को सड़क में भीड़ इतनी बढ़ जाती है कि कार या ऑटो तो बहुत दूर की बात है, बिना किसी से चिपके पैदल चलना भी मुश्किल होता है । भीड़ मजनुओं और विकृत मानसिकता वालों की मनपसंद जगह है । भीड़ में कुछ भी करके निकल जाओ पता नहीं चलता ।
ये तो है हर हफ्ते का हाल पर आज जो हुआ वो बहुत ही शर्मनाक है, ना सिर्फ मेरे लिए बल्कि भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए । ये बात और है कि बहुत से लोग इस शर्म को देख के अनदेखा करते हैं और ज्यादातर इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं ।
हुआ यूँ की मंदिर पार करके जैसे ही मैं अपनी बिल्डिंग के मेन गेट पर पहुंची अँधेरे में कुछ हिलता सा देखा । पास आने पर पता चला की एक जवान महिला और एक छोटी बच्ची मेरे बिल्डिंग के गेट के ठीक बगल में मूत्र विसर्जन कर रहे थे । और वहीँ पर एक बुजुर्ग महिला उन दोनों की चौकीदारी कर रही थी । मन गुस्से और घिन से भर गया, इसी हवा में मैं और हमारी बिल्डिंग के लोग सांस लेते हैं । प्रतिदिन हम कितने इंसानो और जानवरों के मूत्र और पखाने की सांस लेने को विवश हैं ।
पढ़ने वालों, अगर तुमको ये पढ़ के घिन आती है तो जाओ अपनी नकली दुनिया में वापस जहाँ सब सुन्दर साफ़ और अच्छा है और ऐसे दर्शाओ जैसे ये कोई समस्या ही नहीं है । पर मैं आज अपने दिल की भड़ास निकाल के रहूंगी । मेरे लिए एक बड़ी समस्या है, मेरा देश टीवी पर स्वच्छ भारत अभियान चलता है पर सड़क पे चलती कार से मुंडी निकल के पान की पीक थूकता है और ये भी नहीं देखता की वो पीक किस पर पड़ रही है ।
देश में नौजवान सड़क पर लघुशंका और दीर्घशंका के लिए विवश हैं । महिलाओं और लड़कियों को कितनी बार शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है इस सब के चलते । बहुत से लोग कहते हैं की धीरे धीरे सब बदल रहा है, शायद बदल रहा है पर सामने क्यों नहीं दिखता ? या दुनिया भर की गन्दगी मुझे ही दिख रही है? या फिर बाकियों ने डेवेलपमेंट के नाम पे आँखें बंद कर रखी हैं? शायद उन्होंने ये मान लिया है की डेवलपमेंट अपने आप होगा या मोदी जी कर देंगे और इसलिए वो चिंतित नहीं हैं ।
बुनियादी जरूरतें जैसे डिग्निटी के साथ रोजमर्रा के काम कर पाना संभव नहीं तो हम किस डेवलपमेंट की आस लगा के बैठे हैं? अगर भारत में मानव जीवन ऐसा है और परस्पर एक दुसरे के प्रति कोई दया भाव या आदर सम्मान नहीं, तो भले ही सौ साल बाद हम दुनिया में विकसित देश का रुतबा हासिल कर लें पर सच का "डेवलपमेंट" तब भी नहीं हो पायेगा ।
कहाँ है स्वच्छ भारत? कहाँ हैं टॉयलेट्स ? कहाँ हैं साफ़ सड़कें? कहाँ है साफ़ हवा ?
बुनियादी जरूरतें जैसे डिग्निटी के साथ रोजमर्रा के काम कर पाना संभव नहीं तो हम किस डेवलपमेंट की आस लगा के बैठे हैं? अगर भारत में मानव जीवन ऐसा है और परस्पर एक दुसरे के प्रति कोई दया भाव या आदर सम्मान नहीं, तो भले ही सौ साल बाद हम दुनिया में विकसित देश का रुतबा हासिल कर लें पर सच का "डेवलपमेंट" तब भी नहीं हो पायेगा ।
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