Saturday, March 14, 2015

नारी मुक्ति सबकी मुक्ति | बदलता समाज

वेलेंटिन्स डे को मातृ पितृ दिवस बनाने की चेष्टाएँ हो रही हैं। छत्तीसगढ़  में तो बाकायदा इसे एक दिवस घोषित कर दिया गया है। जैसे बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जी की पूजा होती है उसी तरह माता पिता की पूजा के लिए ये दिन बना दिया गया है। मानो हम इतने गए बीते हो गए की माँ बाप की सेवा के लिए हमें एक दिन विशेष की आवश्यकता पड़ने लगे। खैर जिनको जरूरत हो वो मनाये ये दिन।
जहाँ एक तरफ लव कमांडोज़ हैं तो दूसरी तरफ हिन्दू महासभा है।
इस सब के बीच हम में से अधिकाँश लोग इतनी आसानी से हाल में हुए रेप कांड भूल कर प्रेम दिवस और मातृ पितृ दिवस मानाने में लग गए हैं।
हाल में रोहतक में एक मानसिक रूप से कमजोर नेपाली लड़की के साथ जो हुआ वो कैसे नहीं उतना प्रचार पा रहा है जितना की मातृ पितृ दिवस या चुनाव को मिल रहा है? जो पढता है वो कहता है की रोहतक कांड नेें सोलह दिसम्बर की याद ताजा करा दी है, लेकिन फिर इस बारे में कोई जिक्र क्यों नहीं करना चाहता?

नेपाली युवती का शव बड़ी ही वीभत्स स्थिति में पाया गया। यदि अखबार की माने तो चेहरा और शरीर के कई हिस्से जानवरों द्वारा खा लिए गए थे। फेफड़े व कुछ अन्य जरूरी अंग शरीर से गायब थे, खोपड़ी में फ्रैक्चर भी पाया गया। उसके अलावा जो बहुत ही अमानवीय और शर्मनाक बात है वो ये की उसके प्राइवेट पार्ट्स में दो बड़े पत्थर, एक लगभग 11 इंच की छड़ी, कई कंडोम, ब्लेड भी पाये गए। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार मरने से पहले उसे बुरी तरह की अमानवीय यातनाएं मिलीं।

उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में दो लड़कों ने एक लड़की को जिन्दा रहते छोटे छोटे टुकड़ों में काटा और फिर गाला दबा कर उसकी हत्या की।
whatsapp पर एक रेप वीडियो viral हो गया था और संयोगवश वो एक समाजसेवी महिला के हाथ लगा जिन्होंने उसे एडिट करके न सिर्फ youtube पर डाला बल्कि उसे एक न्यूज़ चॅनेल तक भी पहुँचाया ताकि पीड़िता को न्याय मिल सके। इस वीडियो में ५ युवक एक लड़की का न सिर्फ रेप करते हैं बल्कि मोबाइल पर उसका वीडियो बना के circulate भी करते हैं। इस वीडियो में लड़की गुहार लगा रही है - "भैया वीडियो मत बनाइये वरना हमारे पास आत्महत्या के अलावा दूसरा को रास्ता नहीं रह जायेगा।"
आशाराम जो अपने पुत्र के साथ स्वयं भी रेप के चार्ज में जेल की हवा खा रहे हैं, उन्होंने सीख दी थी की रेपिस्ट से प्यार से 'भाई' कह निवेदन करो तो रेप टाला जा सकता है। पांच लड़के जिन्होंने किशोरी का रेप किया था, अभी भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। और तो और अब तक उनकी शिनाख्त तक नहीं हो पायी है। समाजसेवी महिला जिन्होंने इस काण्ड को मीडिया तक पहुँचाया था, उनकी कार पर हाल ही में हमला हुआ और शीशे तोड़े गए।

बंगलौर में एक मजदूर पकड़ा गया - उसने एक आठ साल की बच्ची का रेप करके उसकी गला दबा के हत्या कर दी। ये बात अलग है की वो सीसी टीवी कैमरे में हुयी रिकॉर्डिंग के चलते पकड़ा गया।
ये सब घटनाएं पिछले महीने की हैं। सब में एक ही बात सामान है- महिलाओं के खिलाफ हिंसा व उत्पीड़न।

हम कभी ये ख़बरें पढ़ते हैं लोगों के साथ डिस्कस्स करते हैं और कभी सिर्फ पढ़ कर आगे बढ़ जाते हैं। क्या कभी हम ये सोचते हैं की जिस समाज में हम अपने बच्चों को बड़े होते नहीं देखना चाहते, वो समाज हम बनने ही क्यों दे रहे हैं? क्या हम सचमुच कुछ नहीं कर सकते? कल को अगर हमारी खुद की बेटी के साथ कुछ बुरा हो जाये या हमारा बेटा इस तरह के किसी जुर्म में फंस जाये तो? कभी सोचा है?

सोच तो तभी पाएंगे जब खुले मन से सोचना चाहेंगे। सिर्फ ये कह देना की "हमने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं," "नहीं जी हमारे बच्चे ऐसे नहीं हैं" काफी है? मुझे लगता है की बजाय इसके अगर हम समस्या की जड़ तक जाएँ और उसे उखाड़ फेंके तो रहत मिल सकती है।

बच्चे बड़े हो रहे हैं और हमारे चारों तरफ का माहौल काफी charged up और sexualized है। नहीं मानते? तो फिर कोई भी टीवी चैनल खोल के देख लीजिये। इंडियन सीरिअल्स हों या विदेशी सब कुछ वही है जो हम बच्चों को नहीं देखने देना चाहते। teenage बच्चे तो दूर की बात है सात आठ साल के बच्चे टीवी पर आते प्रोग्राम्स को देख के उत्सुक रहते हैं की हो क्या रहा है। वो जानना चाहते हैं और आप उन्हें डांट के चुप करवा देते हैं या कभी उन्हें बच्चा समझ के उलटे पुलटे जवाब  देते हैं। दोनों ही बातें बहुत घातक हैं।

आठ दस साल का होते होते बच्चे बहुत कुछ समझने लगते हैं भले ही वो आपके सामने भोले बने पर उनकी उत्सुकता उन्हें बहुत दिनों तक भोला बना रहने नहीं देती। दोस्त बनते है, ज्यादा समय इंटरनेट और दोस्तों के साथ गुजरने लगता है। यदि इस समय उनकी उत्सुकता को शांत ना किया जाये तो परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं। एक समझदार और अपना भला बुरा समझने वाला बच्चा न सिर्फ अपने आपको गलत इरादों का शिकार होने से बचा सकता है बल्कि अपने हमउम्र साथियों की भी मदद कर सकता है। यही बच्चा बड़ा होकर एक जिम्मेदार नागरिक बनता है।

जब हमें पता है की हम अपने बच्चों को टीवी इंटरनेट किताबों और वीडियो गेम की दुनिया से दूर नहीं रख सकते तो इस सच का सामना करना जरूरी है की उत्सुक मन अपनी उत्सुकता दूर करके रहेगा अब वह आपके जरिये हो या अन्य माध्यमो से। क्या ये अच्छा नहीं होगा की आपका बच्चा आपमें अपने एक परिपक्व दोस्त की छवि देखे, न सिर्फ आपसे अपनी बातों के जवाब पाये बल्कि हर छोटी बड़ी बात में आपको शामिल करे?
टीवी और इंटरनेट की दुनिया का सच पूरा सच नहीं है और ये अपने छोटों को बताना हमारी जिम्मेदारी है। उनके सवालों को इग्नोर करना या दबाना उनमे कुंठा को जन्म दे सकता है।

दूसरी और एक अलग ही वर्ग है जिसने शायद ही स्कूल का मुह देखा हो और देखा भी हो तो इतना नहीं जिसे सही मायनेमे शिक्षा कहा जा सके। उस वर्ग को भी टीवी इंटरनेट एवं अन्य माध्यम उतने ही उपलब्ध हैं जितने की पढ़ी लिखी जनता को। पर इस वर्ग को टीवी के सच और ज़िन्दगी के सच में अंतर बताने वाला कोई नहीं है। जब ये वर्ग पब या सिनेमा हल स3 रास्ते में निकलती लड़की को देखता है तो एक ही बात सोचता है - 'उस तरह की लड़की' जिसके साथ उसी तरह का व्यवहार होना चाहिए।
अमीर लड़के तो फिर भी अपनी अमीरी के सहारे लड़कियों से बातचीत कर पा रहे हैं और उनके साथ बाहर घूम पा रहे हैं, पर इस वर्ग का क्या जो फैशनेबुल कपड़ों में घूमती गुड़िया जैसी लड़कियों को बस घूर सकता है। उन्हें क्रीप और बहुत कुछ बोला जाता है और क्यों न बोला जाये, सचाई भी तो यही है। हमारी फिल्मों ने इसमें कोई कसर छोड़ी नहीं। ज्यादातर फिल्म यही दिखती हैं की अगर लड़की का बहुत दिनतक पीछा करो तो उसे तुमसे प्यार हो जायेगा... वगैरह वगैरह। और जब वो सच में पीछा करते हैं तो पिट जाते हैं। इस कुंठा को इस तरह से भी समझा जा सकता है की यदि प्रेशर कुकर को बहुत  पे चढ़ा कर छोड़ दो तो एक समय ऐसा आता है प्रेशर  बाहर निकलने  कोशिश करता है । यदि प्रेशर बाहर ना निकल पाये तो सेफ्टी वॉल्व फट कर भाप बाहर निकल जाती है । 

मेरा कहना बस यही है  हमारा ये हाल एक  या एक साल या  सालों में नहीं हुआ है । इसके लिए बहुत कुछ जिम्मेदार है- लड़की  और लड़के में भेदभाव , पुत्र संतान को तरजीह, अशिक्षा, गलत परवरिश (लड़कों को राजकुमार और  लड़की दुसरे घर की अमानत) लड़कियों का लड़कियों का घर में सीमित रहना और लड़कों का सड़कों पर घर बना लेना कुछ एक कारण हैं, ऐसे ऐसे बहुत से अन्य कारण और बताये जा सकते हैं । 

कल  और आज दिल्ली में हुए मूक प्रोटेस्ट इस बात का सबूत हैं की हमारे देश के युवा इस सड़ी गली मानसिकता  पूरी  निजात चाहते हैं ।  जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सेनेटरी पैड्स को  प्रोटेस्ट  का अनूठा जरिया बनाते हुए  कुछ ऐसा किया है जो कबिल -ए -तारीफ है । 

जरा गौर फरमाएं :  

“Period blood is not impure, your thoughts are.” (पीरियड का खून गन्दा नहीं, तुम्हारी सोच गन्दी है गन्दी है)
“Menstruation is natural, rape is not.” (पीरियड्स प्राकृतिक हैं रेप नहीं)
“Streets of Delhi belong to women too.” (दिल्ली की सड़कें लड़कियों के लिए भी है )
“Rapists rape people, not outfits.” (रेपिस्ट लड़कियों का रेप करते  हैं, उनके कपड़ों का नहीं )
“Kanya Kumari, Gandi soch tumhari.” (कन्या कुमारी , गन्दी सोच तुम्हारी )

फोटो क्रेडिट: फेसबुक 

 नारी मुक्ति सबकी मुक्ति 


एक कोना मेरा भी


मखमली कश्मीरी कालीनों  के  बीच में दबा पड़ा कहीं  टाट का बिछौना मेरा भी ।
ढेर सी अंगरेजी किताबों के बीच हिंदी शब्दकोश का होना है होना मेरा भी ।
बड़ी बड़ी इमारतों के बीच में एक झोपड़ा जो दीखता है, उस झोपड़े में है एक कोना मेरा भी ।


Thursday, January 29, 2015

कहाँ है स्वच्छ भारत ?

आज बहुत गुस्सा आ रहा है । बृहस्पतिवार है और आफिस से घर के रस्ते पर सांई बाबा का मंदिर पड़ता है, प्रसाद पाने वालों की लम्बी लाइन लगती है । बड़ा भव्य समारोह होता है आदमियों से ज्यादा औरतों की लम्बी कतारें नजर आती हैं । बड़े बड़े भोंपुओं से आती आरती की आवाजें माहौल को और भ धार्मिक बना देती हैं । मोहल्ले के माननीय बुजुर्गों और उत्साहित आईटी प्रोफ़ेशिोनेल्स बढ़ चढ़ के तन और धन से सेवा करते हैं (मन टटोलना मैं नहीं जानती)।

बृहस्तिवार को सड़क में भीड़ इतनी बढ़ जाती है कि कार या ऑटो तो बहुत दूर की बात है, बिना किसी से चिपके पैदल चलना भी मुश्किल होता है । भीड़ मजनुओं और विकृत मानसिकता वालों की मनपसंद जगह है । भीड़ में कुछ भी करके निकल जाओ पता नहीं चलता । 

ये तो है हर हफ्ते का हाल पर आज जो हुआ वो बहुत ही शर्मनाक है, ना सिर्फ मेरे लिए बल्कि भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए । ये बात और है कि बहुत से लोग इस शर्म को देख के अनदेखा करते हैं और ज्यादातर इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं । 
हुआ यूँ की मंदिर पार करके  जैसे ही मैं अपनी बिल्डिंग के मेन गेट पर पहुंची अँधेरे में कुछ हिलता सा देखा । पास आने पर पता चला की एक जवान महिला और एक छोटी बच्ची मेरे बिल्डिंग के गेट के ठीक बगल में मूत्र विसर्जन कर रहे थे । और वहीँ पर एक बुजुर्ग महिला उन दोनों की चौकीदारी कर रही थी । मन गुस्से और घिन से भर गया, इसी हवा में मैं और हमारी बिल्डिंग के लोग सांस लेते हैं । प्रतिदिन हम कितने इंसानो और जानवरों के मूत्र और पखाने की सांस लेने को विवश हैं । 

पढ़ने वालों, अगर तुमको ये पढ़ के घिन आती है तो जाओ अपनी नकली दुनिया में वापस जहाँ सब सुन्दर साफ़ और अच्छा है और ऐसे दर्शाओ जैसे ये कोई समस्या ही नहीं है । पर मैं आज अपने दिल की भड़ास निकाल के रहूंगी । मेरे लिए एक बड़ी समस्या है, मेरा देश टीवी पर स्वच्छ भारत अभियान चलता है पर सड़क पे चलती कार से मुंडी निकल के पान की पीक थूकता है और ये भी नहीं देखता की वो पीक किस पर पड़ रही है । 

देश में नौजवान सड़क पर लघुशंका और दीर्घशंका के लिए विवश हैं । महिलाओं और लड़कियों को कितनी बार शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है इस सब के चलते । बहुत से लोग कहते हैं की धीरे धीरे सब बदल रहा है, शायद बदल रहा है पर सामने क्यों नहीं दिखता ? या दुनिया भर की गन्दगी मुझे ही दिख रही है? या फिर बाकियों ने डेवेलपमेंट के नाम पे आँखें बंद कर रखी  हैं? शायद उन्होंने ये मान लिया है की डेवलपमेंट अपने आप होगा या मोदी जी कर देंगे और इसलिए वो चिंतित नहीं हैं ।

बुनियादी जरूरतें जैसे डिग्निटी के साथ रोजमर्रा के काम कर पाना संभव नहीं तो हम किस डेवलपमेंट की आस लगा के बैठे हैं? अगर भारत में मानव जीवन ऐसा है और परस्पर एक दुसरे के प्रति कोई दया भाव या आदर सम्मान नहीं, तो भले ही सौ साल बाद हम दुनिया में विकसित देश का रुतबा हासिल कर लें पर सच का "डेवलपमेंट" तब भी नहीं हो पायेगा ।

कहाँ है स्वच्छ भारत? कहाँ हैं टॉयलेट्स ? कहाँ हैं साफ़ सड़कें? कहाँ है साफ़ हवा ?